उदास क्यों हो निन्नी...?
प्रियंका गुप्ता
भाग - १
आज पूरे बारह साल बाद इस कमरे के उस खुले हिस्से पर बैठी हूँ, जिसके लिए बरसों बाद भी कोई सही शब्द नहीं खोज पाई...। कुछ-कुछ छज्जे जैसा, पर छज्जा तो बिलकुल नहीं था वो...। छज्जे में तो आगे का कुछ हिस्सा ज़मीन से बिना किसी सीधे सहारे के पसरा होता है न, और यहाँ तो यह खुला भाग मेरे उस कमरे का ही एक हिस्सा था...जैसे बिना जाली वाली कोई खिड़की, ‘फ़र्श से अर्श तक’ जैसे किसी वाक्य को सार्थक-सी करती हुई...।
मेरी ज़िन्दगी का एक लम्बा हिस्सा भी तो इसी तरह का था...हवा में स्थिर, पर अपनी जड़ों से बहुत दूर...बिना किसी सहारे...। कुछ ऐसे कि हल्का सा तूफ़ान आता और वह हिस्सा सबसे पहले भरभरा के गिर पड़ता। बारह साल का वनवास काट कर आज इस घर में लौटी भी तो कितना कुछ अनचीन्हा-सा था...जैसे राम अयोध्या लौटे हों, और दशरथ के न रहने की अनुभूति उन्हें कितने खालीपन से भर गई हो...। पर राम तो चौदह वर्षों के लिए वन गए थे, और मैं बारह बरस में वापस आई थी। राम नहीं बनी मैं...। मैं तो युधिष्ठिर थी शायद, जो जुए में अपना सब कुछ हार मुँह नीचा किए जंगल गया था...।
पाँडवों की तरह तेरहवें बरस मुझे किसी अज्ञातवास में तो नहीं जाना था, पर दादी के बिना वो सारी जगह मेरे लिए किसी जंगल में बीत रहे अज्ञातवास से कम भी नहीं थी...। कमरे के अपने उसी फ़ेवरेट खुले हिस्से में बैठे हुए मेरी नज़र अनजाने ही आसमान की ओर उठ गई। शाम का धुंधलका गहरा था । सूरज अपने आसपास मानों पूरा जोगिया सिन्दूरा ही पलटा चुका हो...कौन जाने, शायद दादी से माँग ले गया हो...। दादा के जीते-जी वैसे भी दादी के उस सिन्दूरे को छूने की इजाज़त किसी को भी नहीं थी...। सिन्दूरा आधा खाली होने भी न पाता, कि दादी उसे फिर लबालब भर देती...। मेरे लाख ज़िद करने, रूठने के बावजूद उन्होंने कभी लाल सिन्दूर से अपनी माँग नहीं भरी...। ज़िन्दगी में बस एक बार उनके इस सिन्दूरे को छुपाने की गुस्ताख़ी की थी मैने...। अपनी साढ़े पाँच फुटी, भरे शरीर और दमकते-से चेहरे वाली दादी का गुस्से से लाल भभूका हुआ चेहरा मैने पहली बार देखा था। बेहद रोबीली होने के बावजूद मैने हमेशा उनके चेहरे पर एक स्निग्ध मुस्कान ही खिली देखी थी, खास तौर से मेरे लिए...पर उनका यह रूप देख मैं बेतरह डर गई थी...। उस ज्वालामुखी से खुद को सुरक्षित बचाने के लिए मैने इस हवेली का सबसे असुरक्षित कोना चुना था...। ऊपरी मंजिल के आखिर में बना वो लम्बा सा कमरा...दीवारों पर काई जमा हुआ...कुछ बेतरतीब सी बेलों को अपनी कमज़ोर दीवारों का सहारा सा देता हुआ...।
अपनी ग़लती पकड़े जाने के भय से थरथराती-काँपती मैं जाने कब नींद की गोद में चली गई और जब जागी तो हमेशा की तरह दादी के आगोश में थी...। मुझे अपने से लिपटाए सो रही दादी बेहद प्यारी लग रही थी। मेरे कुनमुनाने पर दादी ने अपनी बड़ी-बड़ी कजरारी आँखें खोल कर मुझे देखा था और फिर धीमे से मुस्करा दी थी...सिन्दूरा छुपाना अपशगुन होता है लाडो...और उसका खाली हो जाना भी...। अब कभी ऐसा न करना...।
मेरे ‘हाँ’ में गर्दन हिलाने भर से लगा, जैसे सारी बदली छँट गई हो और एक गुनगुनी सी धूप ने मुझे अपने आँचल में समेट लिया हो...। उनके जोगिया सिन्दूर और लाल बड़ी-सी टिकुली को लेकर उसके बाद मैने तो कोई मज़ाक न किया, पर विधाता कुछ ज़्यादा ही मज़ाकिया निकला। तभी तो साल बीतते-न-बीतते दादा ने उस सिन्दूरे की हिफ़ाज़त करने के कार्यभार से उन्हें हमेशा के लिए मुक्त कर दिया...।
दादा के जाने के बाद दादी जैसे निस्सहाय हो गई थी...। इत्ती बड़ी हवेली में वो अकेली जान...कैसे सम्हालेंगी वो सब कुछ...? पापा ने बोला भी था, इस हवेली को बेच देते हैं, चलो मेरे साथ...। पर दादी अड़ गई थी...इस हवेली में उनकी डोली आई थी, अब अर्थी ही निकलेगी...। पापा को ज़्यादा जल्दी हो तो कहीं से कुछ लाकर खिला दें उनको, फिर आराम से बेचते रहें पुरखों की हवेली...। जैसे दादा उनकी स्थिति देखने नहीं आए, वैसे ही वो भी नहीं आने वाली बाद में कुछ भी देखने...। पर जब तक उनकी साँस चल रही, हवेली नहीं बिकेगी...। हार कर पापा कुछ दिनों के लिए मुझे उनके पास छोड़ कर खुद माँ के साथ वापस लौट गए...।
दादी के घर से मुझे अपने साथ लेने आए पापा इस बार अपने साथ वासन आँटी और उनके बेटे को लाए थे...। वासन अंकल पापा के ऑफ़िस में उनके कुलीग और बहुत अच्छे व गहरे दोस्त थे...। दादा की मौत से कुछ दिन बाद ही हॉर्ट फ़ेल से उनकी मौत हो गई थी...। पापा जब यहाँ से लौटे, तब उनको पता चला। वासन अंकल की सहृदयता का फ़ायदा उनके कपटी भाई ने उठाया था, जिसने किसी भी कागज़ में अंकल की शादी के पहले नॉमिनी रूप में दर्ज़ अपने नाम को न बदलने के कारण उनकी मौत के बाद मिलने वाली हर सहायता पर अपना कब्ज़ा कर लिया था...। यही नहीं, बल्कि आँटी को जाने कौन सी पट्टी पढ़ा कर उनकी जगह नौकरी भी खुद ही पा गया...। अब अपने किशोरवय एकलौते बेटे के साथ वे बिल्कुल निराश्रित थी। अंकल अपने रहते टाइमपास के लिए उनको बीमा का कुछ काम सिखा गए थे, सो अब अपने और बेटे के लालन-पालन के लिए बस वही उनका एकमात्र सहारा था...। अगर सिर पर छत मिल जाती, तो बाकी जीवन किसी तरह कट ही जाता...।
दो बेसहारों ने पहली बार एक-दूजे को देखा...बिन बोले समझा और दादी ने फिर उसी स्निग्ध मुस्कान के साथ अपनी बाँहें फैला दी...। पापा अब दोनो तरफ़ से निश्चिन्त हो गए थे...अपने दोस्त के बीवी-बच्चे और अपनी माँ...इन दोनो के लिए...। उस दिन एक किरायेदार के रूप में वासन आँटी और अनुज दा हमारे घर-परिवार का एक नया हिस्सा बन गए...। हाँ, अब ये बात और है कि दादी ने कभी उनसे किराये के रूप में एक फूटी कौड़ी भी न ली...। दादा उनके लिए इतना छोड़ गए थे, जिसमें बिना कुछ किए भी उनकी दो-तीन पीढ़ियाँ खाती-पीती रहती...।
अनुज दा मुझसे आठेक साल ही बड़े रहे होंगे...। होंठों के ऊपर मूंछों की बहुत हल्की रेखा दिख रही थी। मैं दादी के पीछे से उनको और आँटी को झाँक रही थी, कि तभी हल्के से आँखों के इशारे से उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया...नाम क्या है तुम्हारा...? बेध्यानी में निन्नी कह मैने तुरन्त सजग मुद्रा में कुछ तन कर भूल-सुधार की थी...नलिनी...। सिर्फ़ दादी मुझे निन्नी बुलाती हैं, बाकी सब कोई नलिनी...। अनुज दा ने जाने किस अधिकार से कहा...मैं भी तुम्हें निन्नी ही कहूँगा...। हठात मैने पूछा था...और आप...? मूँछों के नीचे एक बारीक मुस्कान उभरी थी...और शायद आँखों तक भी पहुँची थी...पर आवाज़ में वही अनजाना अधिकार था...मैं अनुज...तुम मुझे अनुज दा कहना...।
नहीं जानती...हमेशा से सिर्फ़ दादी को खुद पर ऐसा अधिकार करने का हक़ देने वाली मैं उस एक पल में अनुज दा को भी कैसे अपने उस वर्जित क्षेत्र में घुसपैठ करने दे गई...? मेरी इजाज़त के बग़ैर खुद माँ-पापा भी मुझे निन्नी नहीं बुला सकते थे, ऐसी ज़िद्दी थी मैं...फिर अनुज दा...?
अनुज दा और आँटी से मेरी बस वो एक संक्षिप्त सी पहली मुलाक़ात थी...। पापा को ऑफ़िस से ज़्यादा दिन की छुट्टी नहीं मिल सकी थी, सो दूसरे दिन की गाड़ी से मुझे लेकर वे वापस चले गए...। उसके बाद बस छुट्टियों में मैं दादी के पास आती...या फिर किसी-किसी समय दादी खुद कुछ दिनों के लिए हमारे पास आ जाती...।
इधर मैं तो फिर भी धीरे-धीरे बढ़ रही थी, पर अनुज दा जाने कैसे दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़े हुए लगते मुझे हर बार...। मूँछों की बारीक रेखा ने अब गझिन मूँछों का रूप ले लिया था, तो उनकी लम्बाई-चौड़ाई भी अच्छी खासी निकली थी। हाँ, मुझे किसी बात पर छेड़ते या फिर कभी नकली गुस्सा दिखाते वक़्त छुपाते-छुपाते भी उनकी मुस्कान उनकी आँखों तक जा पहुँचती और मैं रुँआसी हो वहाँ से भाग खड़ी होती...। थोड़ी देर बाद जब वे हर तरह से निश्चिन्त होकर बैठते, तब मैं चुपके से आकर पीछे से उनकी पीठ पर एक भरपूर घूँसा जमा कर, जब तक वे ‘उई माँ’ कह कर पलट पाते, अपनी पूरी शक्ति से भागती दादी के पास जाकर सीधी-शरीफ़ बच्ची की तरह मटर छीलने या कढ़ाई में कलछुल चलाने जैसा काम करने में लग जाती...।
उनसे खुद को तंग करने का ऐसा बदला लेकर भी जाने क्यों मैं खुश नहीं हो पाती थी...उल्टे एक अपराध-बोध से भर उठती...। कहीं ज़ोर से तो चोट नहीं लग गई न उन्हें...? पर शाम के खाने या चाय के वक़्त उन्हें पूरी तरह सहज देख मैं भी अपने अपराध-बोध से मुक्त हो जाती...। वैसे भी आँटी और अनुज दा दादी के जीवन का एक ऐसा अविभाज्य हिस्सा बन गए थे कि देख कर लगता ही नहीं था कि वे कोई बाहरी हैं...। आँटी दादी को अम्मा कहती थी, तो अनुज दा मेरी तरह ही साधिकार दादी...। जाने क्यों अनुज दा का मेरी हर चीज़ पर यूँ अधिकार जताना मुझे भाता ही था, ईर्ष्या तो रत्ती भर भी न हुई मुझे उनसे...।
मुझे तो तनिक भी जलन नहीं होती थी, पर माँ इस अधिकार से भयभीत हो उठी थी। लाखों-करोड़ों की दौलत कहीं किसी मोह में फँस कर दादी इन बेगानों के नाम न कर दें, यह डर का साँप रह-रह कर माँ की रातों की नींद उड़ा देता था। पर ‘होइये वही जो रब रचि राखा’, तभी तो मेरी आठवीं की गर्मी की छुट्टी में मुझे दादी के पास छोड़ कर लौटते हुए माँ-पापा उस सफ़र पर चल दिए जहाँ से वापस लौटना नामुमकिन था।
इस हादसे ने मुझसे ज़्यादा दादी को झकझोर दिया था। मेरे पास तो रोने के लिए तब भी दादी का कन्धा मौजूद था, पर दादी...? अगर मेरे नाजुक कन्धों पर अपने दुःखों का बाँध टूटने देती तो उस सैलाब में तो मेरा पूरा वजूद ही बह जाता। मेरे सामने दादी खुद को भरसक संयत रखती, पर असलियत उस उम्र तक मुझे भी समझ में तो आने ही लगी थी। हम दोनो एक-दूसरे के सामने सहजता का एक झीना नक़ाब ओढ़े रहते...पर अनुज दा के सामने बेनक़ाब होने में हम दोनो को ही रत्ती भर भी झिझक न होती थी। उस छोटी सी उम्र में ही अनुज दा किसी समझदार बड़े की तरह जाने कैसे हम दोनो के ज़ख़्मों पर अपने शब्दों का वो मरहम रखते कि सारा दर्द जैसे धीरे-धीरे सपर जाता...।
अनुज दा को भी मेरी तरह किताबों से बेहद प्यार था...या सही तरीके से कहूँ तो उनकी तरह मेरी भी साथी थी...किताबें...। जाने कितनी अच्छी और समझदारी भरी आदतें मेरे अन्दर अनुज दा ने डाली...। मसलन किसी किताब को सिर्फ़ पढ़ो नहीं, उसमें लिखी अच्छी बातों को गुनना भी सीखो...। हर विषय में रुचि लो...पढ़ाई से इतर भी जानकारी रखो...। सीखो...जितना सीख सको, उतना...क्योंकि अपनी अन्तिम साँस तक इन्सान अज्ञानी ही रहता है...। अनुज दा सिर्फ़ कहते ही नहीं थे, बल्कि खुद ऐसा करते भी थे। तभी तो जाने कितनी जानकारियों के लिए मैं उनका मुँह ताका करती...। मेरे लिए वे एक चलते-फिरते एनसायक्लोपीडीया से कम नहीं थे...। मेरी रुचियाँ-पसन्द जाने-अनजाने अनुज दा से मेल खाने लगी थी। नतीज़ा यह हुआ कि दसवीं के इम्तिहान में मैने पूरे जिले में टॉप किया था। अनुज दा उस दिन किसी और ही दुनिया में जा पहुँचे थे...नाचते-कूदते, जश्न मनाते...पूरे इलाके में उन्होंने अपनी जेब से मिठाई बाँटी थी...। दादी ने बस एक बार उनको पैसे देने की कोशिश की, पर उनकी आँखों में उपजी एक अनकही पीड़ा से घबरा उन्होंने वो पैसे वापस अपने थैले में डाल लिए थे...।
जिस तरह अनुज दा ने अपनी पहली ही मुलाक़ात में मुझे साधिकार निन्नी बुलाने की घोषणा की थी, उसी तरह बिना पूछे वे मेरे गार्ज़ियन भी बन गए थे। नौकरी से मिली आर्थिक सुरक्षा ने उन्हें और मजबूत ही बनाया था। इसी लिए जब इन्टर के बाद आगे पढ़ने के लिए मैने दिल्ली जाने की इच्छा व्यक्त की, दादी के हल्के विरोध को उन्होंने ही सम्हाला था। एक ढाल बन कर मेरे सामने हमेशा मौजूद रहे अनुज दा ने उस दिन भी दादी के गुस्से की आँच मुझ तक नहीं पहुँचने दी थी।
दादी के गुस्से से तो शायद वे उस दिन भी मुझे बचा लेते जब मैने मार्क की बात दादी को बताई थी, अगर दादी की तरफ़दारी करते हुए उनके बोलने से पहले ही मैं ये न कह देती...इस मामले में आप मुझे मजबूर न ही करें तो अच्छा हो...। शायद अचेतन में कहीं एक बदले की भावना भी थी उनसे, कि सुधा दी की बाबत उन्होंने सबसे आखिर में मुझे क्यों बताया...। कहने को तो मैं कह गई...पर अगले ही पल एक अनजाना भय भी मन को घेर बैठा...। मेरी बात से अनुज दा नाराज़ हो गए तो...? पर अनुज दा नाराज़ नहीं थे...मुझसे कभी नाराज़ हो भी नहीं सकते थे वो, इतना विश्वास था मुझे...पर कभी मेरी बात से आहत नहीं होंगे, इसकी हामी तो उन्होंने भी नहीं भरी थी कभी...।
आहत तो मैं भी हुई थी जब अपने साथ काम करने वाली सुधा दी से अपना रिश्ता शादी की दहलीज़ पर पहुँचाने के बाद उन्होंने मुझे बताया था। मुझे अनमना देख कर कितनी लापरवाही से बोले थे...तू बच्ची है अभी...तुझे क्या बताता मैं...? जाने क्यों, उस पल अन्दर कुछ चटका-सा था।
सुधा दी बहुत अच्छी थी। मुझे पसन्द भी आई थी, पर फिर भी मेरी तरफ़ से उनके लिए एक अदृश्य लकीर-सी खींच दी थी मैने, जिसको पार करने की इजाज़त उन्हें मैने कभी नहीं दी। ज़िद्दी तो मैं थी ही, सब लाख कहते रहे, सुधा भाभी बोला करो...अजीब रिश्ता बना दिया है तुमने दोनो मियाँ-बीवी का...पर मैं नहीं मानी थी। मैने ज़िन्दगी में पहली बार अनुज दा के सामने भी झूठ बोला था...बचपन से एक बड़ी बहन की आस थी, आज पूरी हुई तो उसे क्यों छोड़ूँ...? मेरी बात पर अनुज दा ने एक भरपूर निगाह मेरे ऊपर डाली थी, पर बोले कुछ नहीं थे...। हाँ, सुधा दी को भाभी बुलाने की बाबत न तो उन्होंने पहले कहा था...और न ही मेरे उस एकलौते झूठ के बाद कुछ रियेक्ट किया...।
मेरी दादी घोर कट्टर परम्परावादी न सही, पर मेरे बिल्कुल ही विजातीय प्रेम-विवाह के वे सख़्त ख़िलाफ़ थी। मार्क के बारे में जान कर ही, मेरे इस फ़ैसले से विमुख होने तक उन्होंने खाना-पीना त्याग दिया था। पर थी तो मैं भी उनकी ही पोती...मैने भी अपनी नस काट ली थी...। अच्छा तो नहीं किया था मैने दादी को उस उम्र में यूँ हरा कर...पर प्यार के आगे किसे कुछ सूझता है भला...? दादी अपने बेटे-बहू की आखिरी निशानी इस तरह नहीं खो सकती थी, पर मेरे ठीक होते ही उन्होंने सुधा दी के माध्यम से मुझ तक सन्देसा भिजवा दिया था...इससे कह देना, उस आदमी से शादी के बाद फिर कभी अपनी शक़्ल मुझे न दिखाएगी। इसे मरते नहीं देख सकती मैं...पर इसके लिए आज से मैं मर गई...।
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